‘कश्मीर नीति’ को शीघ्रातिशीघ्र दुरुस्त किया जाना जरूरी

Edited By ,Updated: 25 Aug, 2016 01:13 AM

कश्मीर की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। 8 जुलाई को भारतीय सुरक्षा बलों ने जब अलगाववादी हिजबुल मुजाहिद्दीन के कमांडर खतरनाक आतंकी...

कश्मीर की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। 8 जुलाई को भारतीय सुरक्षा बलों ने जब अलगाववादी हिजबुल मुजाहिद्दीन के कमांडर खतरनाक आतंकी 22 वर्षीय बुरहान मुजफ्फर वानी को मार गिराने का श्रेय हासिल किया था, उसी दिन से यह प्रदेश धधक रहा है। स्कूल की पढ़ाई अधबीच में छोड़ चुके और एक स्कूल मास्टर के बेटे वानी की ‘मुठभेड़ में मौत’ को जम्मू-कश्मीर पुलिस के महानिदेशक के. राजेन्द्र ने ‘‘सुरक्षा बलों की भारी सफलता करार दिया, क्योंकि स्थानीय लड़़कों को भ्रमित करके उन्हें हथियार उठाने के लिए प्रेरित करने में उसकी सक्रिय भूमिका थी।’’

 
जो बात हमारी समझ और व्याख्या के लिए भी चुनौती बनी हुई है, वह यह है कि उसके पुश्तैनी नगर त्राल की ईदगाह में उसको दफनाए जाने के मौके पर हजारों लोग उपस्थित थे, जो मुख्यत: नौजवान थे। क्या ये सभी लोग ‘अलगाववादी’ अथवा ‘पाकिस्तानी एजैंट’ अथवा ‘भारत विरोधी तत्व’ थे? यदि ऐसा है तो हमारी कश्मीर नीति में गहराइयों तक कुछ न कुछ गलत जरूर है और इस नीति को शीघ्रातिशीघ्र दुरुस्त किए जाने की जरूरत है। 
 
‘कश्मीर समस्या’ वास्तव में है क्या? यह भारतीय सत्ता तंत्र और जम्मू-कश्मीर के लोगों के बीच परस्पर रिश्ते की समस्या है। यह कश्मीर के लोगों की भारत के लोगों के साथ मनोवैज्ञानिक एवं भावनात्मक एकजुटता, उनकी भारत के साथ स्वत:स्फूर्त पहचान की भावना, एकात्मवाद की भावना की समस्या है।  यह मूल रूप में कश्मीरी मानस की लड़ाई है-एक ऐसी लड़ाई जिसमें भारत  धीरे-धीरे पराजित होता जा रहा है। 
 
जब हम कहते हैं कि ‘कश्मीर भारत का अटूट अंग है’ तो हमारे अवचेतन में जम्मू-कश्मीर के  भौगोलिक क्षेत्र का अक्स कार्यशील होता है, कश्मीर के लोगों का नहीं। पाकिस्तान के कब्जे वाले इसके इलाके को छोड़कर शेष भौगोलिक क्षेत्र हमारा है और हम पाकिस्तान को इसके एक इंच पर भी कब्जा नहीं करने देंगे। यह हमारा दृढ़ संकल्प है। हम चाहे कश्मीरियों के साथ कैसा भी व्यवहार करें, उन्हें हमारे साथ रहना ही होगा, चाहे वे इसे पसंद करें या नहीं। 
 
समस्या की प्रकृति तथा भारत से कश्मीरियों की बढ़ती अलगाव की भावना के कारणों को समझने के लिए हमें पिछले इतिहास की पड़ताल करनी होगी। हमें भारत के स्वतंत्र होने तथा भारत और पाकिस्तान दो अलग देशों का सृजन होने के तत्काल बाद के भाग्यशाली दिनों की ओर लौटना होगा। पहला भारत-पाक युद्ध अक्तूबर 1947 में ही शुरू हो गया था और इसमें कश्मीर ही मुद्दा था। 
 
उस समय ब्रिगेडियर (बाद में लैफ्टिनैंट जनरल बने) एल.पी. सेन को इस रियासत को सीमा पार से घुसपैठ करके कश्मीर वादी में लूटपाट, आगजनी और बलात्कार की घटनाओं को अंजाम दे रहे सशस्त्र पाकिस्तानी कबाइली हमलावरों से बचाने के लिए 161 इन्फैंट्री ब्रिगेड के कमांडर के रूप में भेजा गया था। बहुत बाद में जाकर इस सच्चाई का खुलासा हुआ था कि कबाइली धाड़वियों के भेस में पाकिस्तान ने अपनी सेना के नियमित जवानों को भी भेजा था। ब्रिगेडियर सेन की पुस्तक ‘वह नाजुक-सा धागा’ उस युद्ध का सबसे प्रमाणिक सैन्य विवरण प्रस्तुत करती है। इस युद्ध के कारणों और इसमें भारत की संलिप्तता को समझने के लिए हम इस पुस्तक में से काफी सारे उद्धरण देंगे। 
 
सेन लिखते हैं : ‘‘सुप्रीम हैडक्वार्टर को प्रभावशाली ढंग से काम करने के योग्य बनाने के लिए भारतीय सैन्य मुख्यालय की सिगनल रैजीमैंट ने इसे हर प्रकार की संचार सुविधाओं से लैस किया था, जिनमें पाकिस्तानी सेना के मुख्यालय से संचार सम्पर्क भी शामिल था। सुप्रीम हैडक्वार्टर को उपलब्ध करवाए गए ये सम्पर्क केवल इसके ही प्रयोग के लिए थे। पंजाब में अमन-कानून की व्यवस्था ठप्प हो जाने के कारण सुप्रीम हैडक्वार्टर में आने वाले संदेशों की संख्या में भारी बढ़ौतरी हो गई थी। 
 
इसलिए इसने भारतीय सैन्य मुख्यालय की पहले से ही ओवरलोड चल रही संचार लाइनों को प्रयुक्त करना शुरू कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि मिलिट्री इंटैलीजैंस द्वारा सरकार एवं मुख्यालयों के डायरैक्टोरेट्स को प्रस्तुत की जाने वाली रिपोर्टें और विभिन्न खुलासे भेजने में अक्षम्य रूप में देरी होने लगी। इस हताशा में संचार के कुछ अन्य चैनलों की बेहद जरूरत थी और सौभाग्यवश भारतीय नौसेना व भारतीय वायुसेना इस मामले में कुछ सहायता करने की स्थिति में थीं। उनके वायरलैस सैट किन्हीं विशेष स्टेशनों से जुड़े हुए नहीं थे। इसलिए उन्हें दुश्मन के गुप्त संदेश पकडऩे तथा इन्हें मिलिट्री इंटैलीजैंस को भेजने के लिए प्रयुक्त किया गया।’’
 
‘‘इस प्रकार नौसेना और वायुसेना के चैनलों द्वारा पकड़े गए कुछ संदेशों से यह संकेत मिला था कि जम्मू-कश्मीर रियासत के जम्मू प्रदेश में भी कुछ गड़बड़ी चल रही थी। अक्तूबर 1947 के प्रारंभ में पकड़े गए संदेशों में से ही एक इस प्रकार था : ‘सेंसा में गोरखे अभी भी डटे हुए हैं’। चूंकि गोरखा यूनिट भारतीय सेना का ही हिस्सा थी और उनके बारे में ऐसा कोई संदेश नहीं मिला था कि वे किसी मुश्किल में फंसे हुए हैं, इसलिए भारतीय सेना द्वारा ‘युद्धादेश’ (आर्डर आफ बैटल) के द्वारा यह सुनिश्चित करने के लिए अध्ययन करवाया गया कि क्या सचमुच गोरखा बटालियन सेंसा के स्थान पर तैनात थी। इस प्रकार का कोई स्थान था ही नहीं...।’’
 
‘‘आखिर में ‘पुणछी’ शब्द से समस्या हल हुई। इससे संकेत मिला कि आप्रेशन का क्षेत्र उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रदेश या बलोचिस्तान नहीं था, बल्कि जम्मू-कश्मीर राज्य था। हैरानी की बात है कि मिलिट्री इंटैलीजैंस के पास जम्मू-कश्मीर का कोई नक्शा ही मौजूद नहीं था। इसलिए एक स्टाफ आफिसर को मैप डिपो में भेजा गया और वहां से उसे जरूरी नक्शे हासिल हो गए। तब सेना ने जम्मू-कश्मीर के बार्डर की अच्छी तरह पड़ताल की। तब जाकर पहले ‘ओवेन’ और फिर ‘सेंसा’ लोकेशनों की पहचान हो सकी। ये दोनों स्थान ही जम्मू प्रदेश के पुंछ जिले में स्थित थे। इनकी लोकेशन से यह स्पष्ट था कि येदोनों ही जम्मू-कश्मीर स्टेट फोर्सिस की सीमा चौकियांथीं। तब कहीं जाकर यह एहसास हुआ कि जम्मू-कश्मीर स्टेट फोर्सिस में गोरखा जवान भी भर्ती किए हुए थे।’’
 
बाद में यह पता चला कि पाकिस्तान ने 4 जे.एंड के. इन्फैंट्री के मुस्लिम सैनिकों की वफादारी में सेंध लगाकर पहले से ही इस हमले की पूरी तैयारियां कर रखी थीं। इस इन्फैंट्री को सड़क के रास्ते कश्मीर घाटी में ले जाया गया था क्योंकि वहां जबरदस्त खतरा दरपेश था। 4 जे.एंड के. इन्फैंट्री के आधे जवान मुस्लिम थे और शेष आधे डोगरा हिन्दू। इस संबंध में ब्रिगेडियर सेन लिखते हैं : 
 
‘‘22 अक्तूबर को बड़े तड़के जब डोगरा जवान अभी सोए हुए थे, पुणछी मुस्लिम जवान जाग पड़े। उन्होंने कम्पनी के शस्त्रागार में से अपने हथियार निकाले और लाइट आटोमैटिक तथा मीडियम मशीनगनों से डोगरा जवानों की बैरकों को घेर लिया ताकि वे अपने हथियार लेने के लिए शस्त्रागार तक पहुंच ही न पाएं। फिर वे बैरकों में प्रविष्ट हो गए और अपने सोए हुए साथियों को कत्ल करना शुरू कर दिया। 
 
उन्होंने कम्पनी कमांडर लैफ्टिनैंट कर्नल निरंजन सिंह की भी नृशंस हत्या कर दी, जबकि उन्हें ही मुस्लिम जवानों पर सबसे अधिक भरोसा था। यह काम पूरा करने के बाद उन्होंने सीमा के दूसरी ओर तैयार-बर-तैयार बैठी कबाइली कानवाय से सम्पर्क साधा। अब मुजफ्फराबाद शहर में उनका रास्ता रोकने वाला कोई नहीं था। इसलिए कबाइली धाड़वी शहद की मक्खियों की तरह शहर पर टूट पड़े और फिर शुरू हुआ बलात्कार, लूट एवं आगजनी का तांडव। ये कबाइली तभी जाकर नियंत्रित हो पाए थे जब उन्हें यह झांसा दिया गया कि कश्मीर वादी में तो आगे इससे भी अधिक माल लूटने को मिलेगा। इस कबाइली कानवाय का नेतृत्व तो अब 4 जे.एंड के. इन्फैंट्री के पुणछी मुस्लिम कर रहे थे और वे सड़क के रास्ते कश्मीर वादी की ओर चल पड़े।’’             
 
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